Sunday, 11 December 2011

स्त्री जीवन


जिस घर मैं आँखें खोलीं थीं
बचपन जिस घर मैं बीता था..
उस घर मैं ही तो पराई हूँ...
मातृ छाँव मैं बचपन बीता
मैं पितृ छाँव न जान सकी.,
सखियों के संग बचपन बीता
है शिक्षा क्या अनजान रही..

सहसा ही मुझको ज्ञात हुआ..
अब उम्र विवाह की आयी है
जाना अब पति के घर होगा
इस घर से तो मैं पराई हूँ,.

एक भोर हुई जाना ही पड़ा
एक सीख साथ मैं ये भी थी
हैं द्वार बंद आने क सब
इस घर से डोली उठती है
वो घर तेरा अब सबकुछ है
उस घर से अर्थी उठती है..

आँखों मैं आंसू अनगित भर
एक स्त्री चली जाती है ..
घर गलियां अपनी छोड़ आज
अनजानी नगरी आती है...
मन मैं भरी कौतूहल है
विस्मय भी इसमें आन मिला
कैसा ये स्त्री जीवन है.?
जिसमें न कभी अधिकार मिला..

था जनम लिया मैंने जिस घर मैं
बचपन जिस घर मैं बीता था
अधिकार वंहा कभी मिला नही..
तो यंहा बात भी क्या करना,,?
जब एसा ही स्त्री जीवन है तो
अधिकारों का भी क्या करना ..?

अलका

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