Tuesday 24 December 2013

अनवरत प्रेम गंगा...

कलकल बहती
अनवरत प्रवाहित होती
आत्मा से मन कि ऒर..
प्रेम गंगा।

आत्मा के उच्च शिखरों पर
हिमखंडों से द्रवित
आँखों के मार्गों से होते हुए
ह्रदय  को सींचती  हुई
मन के समंदर मैं स्थिर होती
तरंगित होती प्रेम गंगा

मन के अथाह समंदर से
कसौटियों पर कसती
आजमाइशों  की  धूप खाती
वाष्पित होती शिखरों पर चढ़ती
फिर जमकर हिम होती
प्रेम गंगा।

तुम
एक प्रेम गंगा का पर्याय
आत्मा से मन के सफर में हमसफ़र
मन के मंथन में
कंधे से कंधे लगाये
कभी तूफानों में  हाथ में  हाथ
दिलाते एक अहसास
अनवरत प्रेम गंगा का।
 

Friday 31 May 2013

स्त्री क्या नदी हो तुम ?


स्त्री  क्या नदी हो तुम ?

कभी पहाड़ो की ऊंचाई से गिर कर  बहती हो ..

कभी मैदानों मैं शांत भाव से कल कल निनाद करती हो,

कभी बहुत शोर ,तो कभी शांत हो जाती हो ,

कभी सागर मैं जाकर मिलती हो

तो कभी मरुस्थल मैं विलीन हो जाती हो,

स्त्री और नदी मैं समानताएं हैं बहुत ..

जीवनदायनी होती हैं दोनों ..

दोनों ही बहती हैं जीवन की लय  मैं

स्त्री  क्या नदी हो तुम ?

अलका ..