Friday 23 December 2011

अनजानी डगर

आँखों मैं अब न स्वप्न
और न सपनों की कहानी..
जीवन की ये डगर लगे कितनी अनजानी....

तेरे पगचिन्हों को
मैं रही तलाशती
हर जाने पहचाने रस्ते पे,
मेरी आँखों के आंसू
की एक कहनी..
जीवन की ये डगर लगे कितनी अनजानी..

तिनके तिनके जोड़,
बनाती रही घरोंदा कितने दिन तक,
पल भर का ये जीवन
उसके लिए रची एक कहानी..
जीवन की ये डगर लगे कितनी अनजानी....
आधे सपने टूटे सपने
झिलमिल-झिलमिल
नभ मैं दूर बुलाते सपने..
सपनों को पूरा करने की थी नादानी..
जीवन की डगर लगे कितनी अनजानी....

आंसू आकर बैठ गये हैं
पलकों की सिरहाने पे,
तेरे-मेरे बीच रह गयी
बस एक कहानी..
जीवन की डगर लगे कितनी अनजानी..

जिन राहों पे साथ चले थे
हाथ मैं लेके हाथ तेरा.,
तन्हा भटक रही हूँ अबतक,
मैं तेरी थी प्रेम दीवानी..
जीवन की डगर लगे कितनी अनजानी..

अलका.

Wednesday 21 December 2011

प्रियतम मेरे


वो अधिकार कँहा से लाऊं..?
कैसे तुमसे नैन मिलाऊं?
ये अँखियाँ दर्शन को प्यासी..
देखूं कबसे बाट तिहारी..
मन का दर्पण सामने रखकर.,
मेरे अपराध क्षमा कर दो अब..
आ जाओ अब प्रियतम मेरे .,
देखूं कबसे बाट तिहारी..
जोगन के भेष मैं योगिन सी मैं.,
देखूं कबसे बाट तिहारी...
मूरत सी नही, सूरत मेरी..
नैनंन मैं बसी मूरत तेरी..,
मंदिर मैं कँहा ढूँढू तुझको..?
थक थक हारी मै बेचारी..
पंथ पे  दीप जलाये बैठी.
आ जाओ तुम प्रियतम मेरे
देखूं कबसे बाट तिहारी....











यादों के आगोश


तुम्हारी यादें
यूँ एक बेल की तरह लिपटीं हैं मेरे
चारो तरफ..
शाम होती है जिनके साथ
सुबह उठती हूँ तो तुम्हारी यादें
मेरे साथ होती हैं
यूँ तो तुम मुझे भूल गये हो..
पर आज भी रात को
अक्सर मैं जाग जाती हूँ..
काले घने अँधेरे मैं तुम दिखाई 
देते हो....
बाहें फैलाकर
तुम्हें आगोश मैं लेना चाहती हूँ..
कि आचानक से लगता है है कि 
जैसे कोई था ही नही
कोई छाया थी..तुम्हारी
जो आज भी मुझे अकेला नही छोडती
और जीवन के इन दुर्गम रास्तों मैं.,
तुम और तुम्हारी याद आज भी
मुझे एक परिकोटे मैं खींच लेती है 
कहो तो अपने आप ही खिच जाती है 
एक लक्ष्मण रेखा .,जो मुझे
इन साँपों से बचा लेती है...

अलका



Monday 19 December 2011

दर्द

दर्द को संगीत देकर.,
दर्द को मैं गुनगुनाती हूँ..
दर्द को हमराह पाकर.,
दर्द पाकर मुस्कराती हूँ....
दर्द क्या है..?
दर्द सुर है दर्द लय है ...
दर्द ही सुर-ताल है..,
दर्द है सांसों की सरगम...
दर्द दिल का हाल है...
दर्द को संगीत देकर
दर्द को मैं गुनगुनाती हूँ...
दर्द को हमराह पाकर
दर्द को मैं गुनगुनाती हूँ...

अलका




Saturday 17 December 2011


                                                                  मेरी आँखें पूछें तू कँहा..?
उसी मोड़ पर खड़ी हूँ
जंहा तुम गये थे छोड़कर..
तुम्हें याद हो न हो..
पर मुझे याद है अभी तक
उस दिन बारिश हो रही थी..
तुम खड़े थे उस ओर
मैं खड़ी थी तुमसे कुछ दूर.
यूँ तो बारिश मैं भीगती रही थी
काफी देर तक..
तुम्हें देख रही थी कि
काश तुम लौट आओ
पर तुम चले गए..
ओर मैं आज तक..
उसी मोड़ पर खड़ी हूँ..
सूनी सूनी आँखे
आज भी उस मोड़ पर देखती हैं
ओर लौट आती हैं..
जब तुम्हें नही ढूंढ पाती हैं..
मेरी आँखें पूछें तू कँहा ??

alka

Tuesday 13 December 2011

"मैं "

उड़ान भी  नहीं है पंख भी नहीं हैं  .
आसमान भी आज ताकता है
मेरी ख़ामोशी पर ...
बारिश भी आकर कभी-कभी 
कुछ आंसू बहा जाती है 
मेरी वेबसी पर...
न कुछ खोने को बचा है
न कुछ पाने की लालसा .,
मेरे साथ आज कोई नहीं..
न जाने उम्र का ये कौनसा पड़ाव है,.? 
मैं खुद भी हैरान हूँ 
अपनी जिन्दगी पर.. 

अलका पाण्डेय..

Monday 12 December 2011

अंतिम क्षण

काश मैं जानती की ये है
अंतिम क्षण तुमसे विदा लेने का..
तो कुछ देर और रूकती.
तुम्हें ठीक से निहारती..
दो आंसू तुम्हारे चरणों
मैं समर्पित करती..
और हमेशा के लिए
अपनी आँखों को मूँद लेती
अगर मैं ये जानती की
ये अंतिम क्षण है
तुमसे विदा लेने का...
जब अंतिम क्षण था
तो समझ भी नही पाई..
की जीवन का सफ़र अब ख़त्म
और तुम्हारा साथ भी ख़त्म..
तुम्हारे होने का एहसास भी..
वक्त तो रेत की मानिद फिसलता गया..
मैंने अंजुरी समेटे थे कुछ दिन
ये वक्त उन्हें भी संग लेता गया..
काश मैं जानती की अंतिम क्षण है
तुमसे विदा लेने का..
अलका

Sunday 11 December 2011

स्त्री जीवन


जिस घर मैं आँखें खोलीं थीं
बचपन जिस घर मैं बीता था..
उस घर मैं ही तो पराई हूँ...
मातृ छाँव मैं बचपन बीता
मैं पितृ छाँव न जान सकी.,
सखियों के संग बचपन बीता
है शिक्षा क्या अनजान रही..

सहसा ही मुझको ज्ञात हुआ..
अब उम्र विवाह की आयी है
जाना अब पति के घर होगा
इस घर से तो मैं पराई हूँ,.

एक भोर हुई जाना ही पड़ा
एक सीख साथ मैं ये भी थी
हैं द्वार बंद आने क सब
इस घर से डोली उठती है
वो घर तेरा अब सबकुछ है
उस घर से अर्थी उठती है..

आँखों मैं आंसू अनगित भर
एक स्त्री चली जाती है ..
घर गलियां अपनी छोड़ आज
अनजानी नगरी आती है...
मन मैं भरी कौतूहल है
विस्मय भी इसमें आन मिला
कैसा ये स्त्री जीवन है.?
जिसमें न कभी अधिकार मिला..

था जनम लिया मैंने जिस घर मैं
बचपन जिस घर मैं बीता था
अधिकार वंहा कभी मिला नही..
तो यंहा बात भी क्या करना,,?
जब एसा ही स्त्री जीवन है तो
अधिकारों का भी क्या करना ..?

अलका

Saturday 3 December 2011

उम्मीद



ये उम्मीद ही तो है
जो लड़खड़ाने नहीं देती..
आंसू निकल भी आयें ,.
दुनियां को दिखाने नही देती....

दरसल हकीकत है
ये जिन्दगी की
सच्चे साथी बिना
कोरे सपनों मैं रंग लाने नहीं देती
ये उम्मीद ही तो
जो लड़खड़ाने नही देती...

होते हैं जब हैरान-परेशान
जिंदगी की उलझनों से.,
ये उम्मीद ही तो है
जो लड़खड़ाने नही देती....

अलका