Sunday 21 October 2018

स्त्री विमर्श

 क्या ईश्वर इतना कमजोर है कि एक रजस्वला स्त्री के दर्शन मात्र से उसका ध्यान भंग हो जायेगा ? यदि ऐसा है तो क्या वह वास्तविक रूप से ईश्वर कहलाने का अधिकारी भी है ?
सबरीमाला मंदिर मैं भगवान अयप्पन ध्यान मग्न मुद्रा मैं विराजमान हैं मान्यता ये है कि रजस्वला स्त्री के दर्शन मात्र से उनका ध्यान भंग हो जायेगा और मंदिर की पवित्रता को नष्ट हो जायेगी।परन्तु ये मापदंड निर्धारित करने वाले कौन लोग हैं ? समाज के लोग या ईश्वर स्वयं ?
ईश्वर कभी अपने बच्चों मैं भेद भाव नहीं करता ये काम कुछ चंद  सामाजिक ठेकेदारों का है जिन्होंने एक वर्ग को ईश आराधना से वंचित किया है। एक तरफ ये ही लोग माता कामख्या की योनि रूप मैं पूजा करते हैं और दूसरी तरफ उसी स्त्री को रजस्वला होने पर मंदिर मैं प्रवेश से रोकते हैं । एक मान्यता के अनुसार माता कामख्या स्वंय एक निश्चित तिथि पर रजस्वला होती हैं जिनकी आराधना करने सवयंम  देवता नील पर्वत पर आते हैं जिसे अब्बुबाची मेला कहा जाता है। प्रभु स्वयं माता की आराधना करते हैं और वही स्त्री प्रभु के समक्ष न जाये यह समझ से परे है।        
 सबरीमाला मंदिर का मुद्दा धर्म या  ईश्वर का मुद्दा नहीं बल्कि ये मुद्दा है स्त्री के सामाजिक महत्व का उसकी अस्मिता का। आज के लोकतांत्रिक भारत और जागरूक भारत की विडंबना नहीं तो और क्या है कि  स्वयं स्त्री ही स्त्री के  विरुद्ध खड़ी है प्रश्न भगवान का ही है तो उस भगवान ने भी  कभी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया होगा ? याद रहे ईश्वर चाहे किसी भी मजहब का हो उसने जन्म लेने के लिए स्त्री की कोख का ही प्रोग किया होगा। चाहे कृष्ण हों या ईशु सभी ने स्त्री के गर्भ से ही जन्म लिया और आज वही स्त्री अछूत है। जिस रजोधर्म के कारण स्त्री गर्भ धारण करती है संतान को उत्पन्न करती है आज समाज ने उसी जैविक प्रक्रिया को धर्म और ईश्वर का मुद्दा बना दिया है। 
संविधान का अभिरक्षक हमारा उच्चतम न्यायालय भी यही मानता  है कि सबरीमाला मैं महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंधित नहीं होना चाहिए तो फिर क्यों कुछ धर्म के तथाकथित ठेकेदार और कुछ राजनैतिक पार्टियां अपना हित साथ रहे हैं। अगर महिलाओं के प्रवेश से मंदिर अछूत होता ही है तो एक नियम यह भी बनाना चाहिए कि " कोई भी पुरुष जिसने किसी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया हो वह मंदिर मैं प्रवेश का अधिकारी नहीं होगा। "
यदि उपरोक्त वक्तव्य  असंभव प्रतीत होता है तो समाज के उन ठेकेदारों को शर्म करनी चाहिए जो स्वयं किसी स्त्री की संतान हैं। रही बात उन स्त्रियों की जो स्वयं उन महिलाओं का विरोध कर रही हैं जो मंदिर मैं प्रवेश की इच्छुक हैं ऐसी महिलाएँ  जिनकी मानसिकता स्वयं स्वार्थवादी सोच के दायरे तक सीमित है जिनको स्वयं के अधिकारों का भान नहीं है हम उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं की वह किसी और महिला के हित के लिए आवाज उठयेंगी ? इन  महिलाओं को समाज ने अपना मोहरा बनाकर स्त्रियों के  विरुद्ध ही खड़ा किया है जिससे इस मुहिम को कमजोर किया जा सके। और उन सभी आवाजों को मौन किया जा सके जो  आज रूढ़ियों के विरुद्ध उठ  खड़ी हुई है। आज आवश्यकता है कि  सभी  स्त्रियां मिलकर  समाज को यह सन्देश दें कि  वह स्वयंम नहीं आना चाहती इस प्रकार के किसी भी धार्मिक स्थल पर जंहा उनके लिए स्थान नहीं है।  
 विचारणीय तथ्य  यह  है कि क्या  हम संविधान और कानून से ऊपर हो गए हैं ? तो फिर क्या महत्व है रह जाता है संविधान का और क्या आवश्यकता है कानून की ? 
दो वर्ष ग्यारह माह अठारह दिन तक कई विद्धवान मनीषियों ने मिलकर संविधान का निर्माण किया जिसक अभिरक्षक स्वयं उच्चतम न्यायलय है और वंहा के न्यायाधीश जो वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद उस पद को प्राप्त करते हैं जो हर मुद्दे की गहनता से समीक्षा के उपरांत ही कोई फैसला देते हैं उस फैसले को दरकिनार कर कुछ चंद लोगों ने  कानून तक अपने हाथ मैं लेने से गुरेज नहीं किया।
वैदिक काल मैं स्त्रियां सभा विधत मैं भाग लेती थी ये वो समितियां थी जो राजा को धार्मिक और सामाजिक सलाह  देने का कार्य करती थीं स्त्रियां यज्ञ मैं भाग लेती थीं सूक्तो की रचनाएँ करती थीं व् सभी धार्मिक कार्यो को करने का अधिकार उनको प्राप्त था तब क्या हम ये मान ले कि  उस काल के लोगों को ज्ञान हमसे कम था या उनका ईश्वर हमसे अलग था ? उस काल  के लोग अत्याधिक विद्वान थे जिन्होंने स्त्री और पुरुष के अधिकारों मैं भेद नहीं किया ये तो हमारा दुर्भाग्य है कि हम उस वैदिक कालीन आदर्श को छू तक नहीं पाएं हैं।  
आज की स्त्री अपने अधिकारों के प्रति न सिर्फ जागरूक है अपितु अपने अधिकाररों के लिए सतत संघर्षरत भी है तो क्या आज हम सभी स्त्रियों को ऐसे धर्म या ईश्वर का स्वयं त्याग नहीं क्र देना चाहिए ? यदि हम अछूत ही हैं और मंदिर प्रवेश की अधिकारिणी नहीं हैं तो क्या हमें आज ऐसी प्रथाओं और रूढ़ियों का  बहिष्कार नहीं क्र देना चाहिए ?
आज गाँधी और बुद्ध  के भारतवर्ष मैं स्त्री को अछूत मानकर दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया हैं जिस देश मैं कभी गाँधी ने समानता की बात की थी आज वंहा स्त्री को ही ईश आराधना से वंचित किया जा रहा है।विडंबना ये है कि हम रूढ़ियों से बंध गए हैं  परम्परा और रूढ़ियों में भेद होता है जंहा परम्परा समाज को नवीन मार्ग पर ले जाती है वंही रूढ़ि समाज को अवांछित क्षति पहुंचती है।
 किसी भी रूढ़ि को समाप्त कराने के लिए विरोधों से टकराने का साहस होना चाहिए तभी सुधर आएगा क्योंकि यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है सदियों से चली आ रहे रूढ़ि को समाप्त करने की। जिससे हम एक बेहतर समाज बेहतर भारत और  एक बेहतर विश्व के निर्माण का मार्ग प्रशांत क्र सकें।    

अलका पांडेय 
21/10/2018





Tuesday 24 December 2013

अनवरत प्रेम गंगा...

कलकल बहती
अनवरत प्रवाहित होती
आत्मा से मन कि ऒर..
प्रेम गंगा।

आत्मा के उच्च शिखरों पर
हिमखंडों से द्रवित
आँखों के मार्गों से होते हुए
ह्रदय  को सींचती  हुई
मन के समंदर मैं स्थिर होती
तरंगित होती प्रेम गंगा

मन के अथाह समंदर से
कसौटियों पर कसती
आजमाइशों  की  धूप खाती
वाष्पित होती शिखरों पर चढ़ती
फिर जमकर हिम होती
प्रेम गंगा।

तुम
एक प्रेम गंगा का पर्याय
आत्मा से मन के सफर में हमसफ़र
मन के मंथन में
कंधे से कंधे लगाये
कभी तूफानों में  हाथ में  हाथ
दिलाते एक अहसास
अनवरत प्रेम गंगा का।
 

Friday 31 May 2013

स्त्री क्या नदी हो तुम ?


स्त्री  क्या नदी हो तुम ?

कभी पहाड़ो की ऊंचाई से गिर कर  बहती हो ..

कभी मैदानों मैं शांत भाव से कल कल निनाद करती हो,

कभी बहुत शोर ,तो कभी शांत हो जाती हो ,

कभी सागर मैं जाकर मिलती हो

तो कभी मरुस्थल मैं विलीन हो जाती हो,

स्त्री और नदी मैं समानताएं हैं बहुत ..

जीवनदायनी होती हैं दोनों ..

दोनों ही बहती हैं जीवन की लय  मैं

स्त्री  क्या नदी हो तुम ?

अलका ..






 

Saturday 25 August 2012

उद्देश्य की तलाश मैं...

अक्सर जिंदगी मुझे दोराहे पर लाकर क्यों खड़ा कर देती है?? या सभी के साथ यही समस्या है??
समझ नही आता है कि किस ओर जाना चाहिए  ...?
चलना नियति है और मुझे भी चलना  होगा। ठहराव भयानक परिणाम लता है।.
मसलन ठहरा हुआ पानी भी सड़ जाता है।.
देहली मैं न अच्छा लग रहा है न बुरा ...अजीब स्थिति होती है ये ..कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं।..

"अपनी धुन मैं उड़ रही थी
 
एक चंचल सी हवा।...

दर्द कोई दे गया पंख ले गया।.

सपना टूटा ..

मौसम रूठा ..

छायीं हैं खामोशियाँ ...

ढूढ़  रहे नैन थके अपना आशियाँ ...

न कोई धरती है  तेरी 

न कोई गगन..

शाख से टूटे पत्ते को जैसे ले चले पवन .. 

तू नदी सी बह  रही सागर कोई नही ..

मोड़ तो कई मिले मंजिल  कोई नही.. 

सपना टूटा ..
 
मौसम रूठा ..
 
छायीं हैं खामोशियाँ ...
 
ढूढ़  रहे नैन थके अपना आशियाँ ...


अलका ..



 

Tuesday 26 June 2012

उद्देश्य की तलाश मैं....

आज फिर से शुरू कर रही हूँ एक नई यात्रा।..आगरा से देहली ...आगरा के बस स्टॉप पर बैठ कर  लिख रही हूँ ...पता नही ये सफ़र अब कैसा रहेगा ??अभी तक के सफ़र मैं कुछ खास नही हुआ।.जिस उद्देश्य की तलाश मुझे थी वो पूरा नही हुआ ..लग रहा है की अब एक बेहतर निर्देशन की जरुरत मुझे है  शायद देहली जाकर पूरा हो सके।.या तो मैंने सपने बड़े देख लिए हैं या फिर मैं उनको पूरा करने का उचित प्रयास नही कर पा रही हूँ।..

हमेशा मेरा सोचना रहा की किस्मत नाम की कोई चीज नही होती हम जो चाहते हैं उसे अपने दम पर पा  सकते हैं पर अब लग रहा है कंही कुछ तो एसा है जो मेरे और मेरे सपने के बीच आ रहा है।..खुद को बदलना मुश्किल होता है पर शहर बदलना आसन और मैं शहर बदल लेती हूँ खुद को नही बदल पाती।पर अब उसी दिशा मैं प्रयास करने जा रही हूँ और इसी जद्दोजहद की कहानी है ये मेरी यात्रा।.....

उद्देश्य की तलाश मैं....

Saturday 23 June 2012

उद्देश्य की तलाश मैं।..

एक बड़े समयान्तराल उपरांत फिर से लिखना शुरू कर रही हूँ।..जिंदगी की जद्दोजहद  मैं उलझ  गयी हूँ।.
हर तरफ निराशा ही निराशा दिख रही है।.समझ नही आ रहा जिंदगी कहाँ  ले जा रही है।और मुझे कहाँ जाना है।.."
 ऐसे मैं उम्मीद की एक किरन  तक देख पाना जैसे कि जीवन ही काटना पड़ जाये किसी  अनजाने नगर मैं।..

 जब हर तरफ अन्धकार दिख रहा हो तो व्यक्ति को किस और जाना चाहिए ? जब कुछ नजर न आये तो किस डगर चल दूँ। कुछ भी समझ नही आ रहा  अब...निरुद्देश्य  भटकी फिरती हूँ बुझती बाती सा जीवन ये।।

उद्देश्य की तलाश मैं।..

Tuesday 24 April 2012

मुक्ति


स्वयं को मुक्त करना कठिन है
परन्तु मुक्त होना जरुरी है
मेरी विवशता है मुक्त होने की..
क्योंकि मेरी मुक्ति के
साथ साथ तुम भी मुक्त हो
इस अनचाहे रिश्ते का
बोझ ढोने से...
जो जुड़ गया था कभी
कुछ भावनाओं मैं बह कर..
तुम भी टूटे थे और जुड़ना चाहते थे..
मैं भी हताश थी जीवन के कड़वेपन से
पर अब परस्थिति भिन्न है..
तुम सक्षम हो अब स्वयं को
जोड़ने मैं..
और मैं भी जीवन के कड़वेपन से
भागना नही चाहती
जैसा ये है, इसे यूँ ही
स्वीकारना चाहती हूँ...

अलका

Saturday 25 February 2012

वक्त

चाहे कैसे भी हो.,
पर ये वक्त गुजर जायेगा...
तेरे मन को कुछ यादें सुहानी ये दे जायेगा..
दूर तक जाने की जो है ये हसरत तेरी.,
वक़्त के साथ ये भी बदलती रहेगी.,.
कभी आरजू होगी आगे जाने की तेरी .,
कभी जुस्तजू होगी लौट आने की तेरी.,
ये डगर है जो जीवन की., बड़ी ही कठिन है 
वक़्त के साथ हर मंजर बदल जायेगा.
कभी रौशनी होगी राहों मैं तेरी.,
तो कभी अँधेरे भी होंगे.,
पर सफर तो सफ़र है .,गुजर जायेगा.
खट्टी - मीठीं यादे तुझको दे जायेगा..
अलका.

एक शहर


दिल के कोने मैं चुपके से
धडकता है कंही..
एक शहर मुझमें भी बसता है कंही...
पिछली रातों के साये मैं
मेरी रूह से लिपटा वो रहा..
मन की गहराईयों मैं.,
छुप के बैठा है कंही ..
अक्स है कोई
जो मिटाने से मिटता ही नही..
आज भी मुझमें वो रहता है कंही...
एक शहर मुझमें भी बसता है कंही..
 
अलका .

Friday 23 December 2011

अनजानी डगर

आँखों मैं अब न स्वप्न
और न सपनों की कहानी..
जीवन की ये डगर लगे कितनी अनजानी....

तेरे पगचिन्हों को
मैं रही तलाशती
हर जाने पहचाने रस्ते पे,
मेरी आँखों के आंसू
की एक कहनी..
जीवन की ये डगर लगे कितनी अनजानी..

तिनके तिनके जोड़,
बनाती रही घरोंदा कितने दिन तक,
पल भर का ये जीवन
उसके लिए रची एक कहानी..
जीवन की ये डगर लगे कितनी अनजानी....
आधे सपने टूटे सपने
झिलमिल-झिलमिल
नभ मैं दूर बुलाते सपने..
सपनों को पूरा करने की थी नादानी..
जीवन की डगर लगे कितनी अनजानी....

आंसू आकर बैठ गये हैं
पलकों की सिरहाने पे,
तेरे-मेरे बीच रह गयी
बस एक कहानी..
जीवन की डगर लगे कितनी अनजानी..

जिन राहों पे साथ चले थे
हाथ मैं लेके हाथ तेरा.,
तन्हा भटक रही हूँ अबतक,
मैं तेरी थी प्रेम दीवानी..
जीवन की डगर लगे कितनी अनजानी..

अलका.

Wednesday 21 December 2011

प्रियतम मेरे


वो अधिकार कँहा से लाऊं..?
कैसे तुमसे नैन मिलाऊं?
ये अँखियाँ दर्शन को प्यासी..
देखूं कबसे बाट तिहारी..
मन का दर्पण सामने रखकर.,
मेरे अपराध क्षमा कर दो अब..
आ जाओ अब प्रियतम मेरे .,
देखूं कबसे बाट तिहारी..
जोगन के भेष मैं योगिन सी मैं.,
देखूं कबसे बाट तिहारी...
मूरत सी नही, सूरत मेरी..
नैनंन मैं बसी मूरत तेरी..,
मंदिर मैं कँहा ढूँढू तुझको..?
थक थक हारी मै बेचारी..
पंथ पे  दीप जलाये बैठी.
आ जाओ तुम प्रियतम मेरे
देखूं कबसे बाट तिहारी....











यादों के आगोश


तुम्हारी यादें
यूँ एक बेल की तरह लिपटीं हैं मेरे
चारो तरफ..
शाम होती है जिनके साथ
सुबह उठती हूँ तो तुम्हारी यादें
मेरे साथ होती हैं
यूँ तो तुम मुझे भूल गये हो..
पर आज भी रात को
अक्सर मैं जाग जाती हूँ..
काले घने अँधेरे मैं तुम दिखाई 
देते हो....
बाहें फैलाकर
तुम्हें आगोश मैं लेना चाहती हूँ..
कि आचानक से लगता है है कि 
जैसे कोई था ही नही
कोई छाया थी..तुम्हारी
जो आज भी मुझे अकेला नही छोडती
और जीवन के इन दुर्गम रास्तों मैं.,
तुम और तुम्हारी याद आज भी
मुझे एक परिकोटे मैं खींच लेती है 
कहो तो अपने आप ही खिच जाती है 
एक लक्ष्मण रेखा .,जो मुझे
इन साँपों से बचा लेती है...

अलका



Monday 19 December 2011

दर्द

दर्द को संगीत देकर.,
दर्द को मैं गुनगुनाती हूँ..
दर्द को हमराह पाकर.,
दर्द पाकर मुस्कराती हूँ....
दर्द क्या है..?
दर्द सुर है दर्द लय है ...
दर्द ही सुर-ताल है..,
दर्द है सांसों की सरगम...
दर्द दिल का हाल है...
दर्द को संगीत देकर
दर्द को मैं गुनगुनाती हूँ...
दर्द को हमराह पाकर
दर्द को मैं गुनगुनाती हूँ...

अलका




Saturday 17 December 2011


                                                                  मेरी आँखें पूछें तू कँहा..?
उसी मोड़ पर खड़ी हूँ
जंहा तुम गये थे छोड़कर..
तुम्हें याद हो न हो..
पर मुझे याद है अभी तक
उस दिन बारिश हो रही थी..
तुम खड़े थे उस ओर
मैं खड़ी थी तुमसे कुछ दूर.
यूँ तो बारिश मैं भीगती रही थी
काफी देर तक..
तुम्हें देख रही थी कि
काश तुम लौट आओ
पर तुम चले गए..
ओर मैं आज तक..
उसी मोड़ पर खड़ी हूँ..
सूनी सूनी आँखे
आज भी उस मोड़ पर देखती हैं
ओर लौट आती हैं..
जब तुम्हें नही ढूंढ पाती हैं..
मेरी आँखें पूछें तू कँहा ??

alka

Tuesday 13 December 2011

"मैं "

उड़ान भी  नहीं है पंख भी नहीं हैं  .
आसमान भी आज ताकता है
मेरी ख़ामोशी पर ...
बारिश भी आकर कभी-कभी 
कुछ आंसू बहा जाती है 
मेरी वेबसी पर...
न कुछ खोने को बचा है
न कुछ पाने की लालसा .,
मेरे साथ आज कोई नहीं..
न जाने उम्र का ये कौनसा पड़ाव है,.? 
मैं खुद भी हैरान हूँ 
अपनी जिन्दगी पर.. 

अलका पाण्डेय..